स्वभाविक रहने का अर्थ है कि आपने स्वयं को, दूसरों को और अपने आसपास की सभी वस्तुओं को, वे जैसी हैं, वैसा ही स्वीकार किया है। आपने उसे बोझ जैसे नहीं बल्कि समझ के साथ स्वीकार किया है। जब आप सोचते हैं या महसूस करते हैं कि यह ऐसा होना चाहिए या यह वैसा होना चाहिए तो आप अपने सही स्वभाव में नहीं रहते फिर आप अपनी सीमाओं के सम्पर्क में आ जाते हैं। स्वाभाविक और सुखी नहीं रहने की सीमाएं।
गलतियों का ज्ञान तब मिलता है जब आप मासूम होते हैं। जो गलती हो उसके लिए अपने को पापी न समझें क्योंकि उस वर्तमान क्षण में आप फिर से नवीन, शुद्ध और स्पष्ट हो जाते हैं। भूतकाल की गलतियां भूतकाल हैं। जब यह ज्ञान मिल जाता है तो आप फिर से परिपूर्ण हो जाते हैं। कई बार मां अपने बच्चों पर नाराज होती है और बाद में अपने को दोषी समझती है। क्रोध सजगता की कमी के कारण आता है। स्वयं, सत्य और कौशल का ज्ञान उत्तमता को उभार देता है। इसलिए गलती करने से न डरें परन्तु वही गलती दोबारा न करें। जब आप दूसरों की गलतियां सुधारते हैं तो दो स्थितियां होती हैं। पहली जब आप किसी की गलती सुधारते हो क्योंकि वह आपकी परेशानी का कारण होती है। दूसरी स्थिति में वह आपको परेशान नहीं करती बल्कि इसलिए कि उसका विकास हो सके। गलतियों को सुधारने के लिए आपको अधिकार और प्रेम की आवश्यकता होती है। अधिकार और प्रेम एक-दूसरे के विरोधाभासी हैं परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। अधिकार के बिना प्रेम दम घुटने जैसा है। प्रेम के बिना अधिकार उथले जैसा है। एक मित्र के पास अधिकार और प्रेम दोनों होना चाहिए परन्तु वह सही मेल में होना चाहिए। यह सिर्फ तब हो सकता है जब आप पूर्णत: आवेगहीन और केन्द्रित होंगे। जब आप गलतियों के लिए जगह देंगे तो आप दोनों अधिकारपूर्ण और प्यारे हो जाएंगे। दैव इसी तरह के होते हैं। दोनों का सही संतुलन। कृष्ण और ईसा मसीह में दोनों बाते थीं। दूसरों की तरफ उंगली उठाकर गलतियां मत करो। किसी व्यक्ति को उस गलती के बारे में मत बताआ॓ जो उसे पता है, उसने की है। ऐसा करके आप उसे और अधिक अपराधी बना देंगे। एक महान व्यक्ति दूसरों की गलतियों को नहीं पकड़ेगा और उन्हें अपराधी महसूस नहीं होने देगा। वह उन्हें आवेग और देखरेख के साथ ठीक करेगा। जब आप दया दिखाते हैं तो आपका सही स्वभाव सामने आता है। क्या आपने दया के कुछ कृत्य किये हैं किसी से बिना अपेक्षा के? हमारी सेवा बुद्धिहीन नहीं होनी चाहिए। दया के कृत्य के लिए योजना नहीं बनानी चाहिए। जब आप यादृच्छिक दया के कृत्य करते हैं तो अपने सही स्वभाव में आ जाते हैं। अनायास कुछ करें और स्वाभाविक रहें।
सत्संग : सृष्टि का उपहार
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य परमात्मा, ईश्वर, ब्रह्म, परमपिता आदि कई नामों से पुकारी जाने वाली एक अनादि शक्ति का प्रकाश और उसकी प्रेरणा से ही इस जगत को और जगत के पदार्थों को स्फुरण मिल रहा है।
उसी के प्रभाव से सृष्टि के विभिन्न पदार्थों का ज्ञान, कार्य एवं सौन्दर्य प्रतिभासित होता है। वहीं अपने समग्र रूप में अवतीर्ण और सत्य रूप में प्रतिष्ठित होता रहता है। साधक जब विराट जगत के रूप में परमात्मा का दर्शन करता है, उन्हीं की चेतना को सूर्य, पृथ्वी, चन्द्रमा, तारागण आदि में प्रकाशित होते देखता है, तो उसे सत्य का दर्शन होता है। जगत और अध्यात्म का, स्थूल और सूक्ष्म का, दृश्य और तत्व का जहां परिपूर्ण सामंजस्य होता है, वहीं सत्य की परिभाषा पूर्ण होती है और यह सत्य जब जीवन साधना का आधार बनता है, तब जगत की प्रेरक और सर्जन शक्ति का परिचय प्राप्त होता है। इसलिए शास्त्रकारों ने सत्य को ही जीवन का सहज दर्शन माना है।महर्षि विश्वामित्र ने कहा है-
सत्येनार्क प्रतपति सत्ये तिष्ठति मेदिनी। सत्य व्यक्ति परोधर्म: स्वर्गे सत्ये प्रतिष्ठिति:
अर्थात् सत्य से ही सूर्य तप रहा है, सत्य पर ही पृथ्वी टिकी हुई है। सत्य सबसे बड़ा धर्म है और सत्य पर ही स्वर्ग प्रतिष्ठित है। समग्र अध्यात्म दर्शन का मूल आधार सत्य है। पूर्व और पश्चिम जिस प्रकार एक ही अखंड क्षितिज में स्थित हैं, उसी प्रकार जगत और अध्यात्म, दृश्य और अदृश्य सत्ता एक ही सत्य के दो पहलू हैं। उनमें से एक का भी त्याग करने पर सत्य के दर्शन असंभव हैं। सत्य के साथ शिव और सुन्दर भी जुड़े हुए हैं। शिव अर्थात आनन्द कल्याण और सुन्दर अर्थात् पुलक उत्पन्न करने वाली भावनात्मक विशेषता। जब जगत् की समस्त घटनाओं को केवल बाह्य घटनाएं समझकर उनका विश्लेषण किया जाता है, तो उनसे कोई आनन्द नहीं मिलता। उस स्थिति में घटनाएं और विश्लेषण केवल एक शुष्क मशीनी उपक्रम मात्र बन कर रह जाते हैं। पटरी पर रेल के समान, सड़क पर मोटर के समान, शिलाखंडों पर नदी की धारा के समान मन मानस पर भी जगत की धारा बहती रहती है। चित्त पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ने पाता और सब कुछ निर्जीव, नीरस, अरूचिकर परस्पर लगने लगता है, लेकिन जीवन में नवीनता, सरसता और अहोभाव का समावेश कर लिया जाए, तो परमपिता परमात्मा की यह सृष्टि सुन्दर और सुन्दरतम प्रतीत होती है।
परमात्मा ने सृष्टि के निर्माण में अपनी पूरी कलात्मकता का परिचय दिया है और इस सृष्टि को इतना सुन्दर बनाया है कि उसे रस भाव से देखा जाए, तो यह उपवन असंख्य प्रकार के पुष्पों से महकता-पुलकता अनुभव होने लगे। रात को तारों भरे आकाश की आ॓र निहारें तो लगेगा कि परमात्मा ने आकाश में कितने सुन्दर टिमटिमाते हुए दिए जला दिए हैं, नीले आकाश की काली चादर में कैसे चमकते हुए मोती टांग दिए हैं।
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